जन्म कुंडली बनाने के बाद ज्योतिषी और पंडित जिस चीज पर सबसे ज्यादा ध्यान देते हैं वह है कुंडली में मौजुद दोष (Kundali Dosh in Hindi)। किसी ग्रह का नीच भाव में होना या पाप ग्रहों द्वारा सीधा देखा जाना कुंडली में दोष उत्पन्न करता है। यह दोष पूर्व जन्म के भी हो सकते हैं या फिर इसी जन्म के भी। कुंडली दोषपूर्ण होने की स्थिति में जिस ग्रह को प्रभावित करती है उसके शुभ फल जातक को नहीं मिल पाते। आइयें जानें विभिन्न कुंडलिय दोषों को और साथ ही उनके निवारण (Kundali Dosh Remedies in Hindi) की विधि: मांगलिक दोष (Mangalik Dosha in Kundali) काल सर्प दोष (Kaal Sarp Dosh in Kundali) पितृ दोष (Pitru Dosha in Kundali).
प्रथम भाव : यह लग्न भी कहलाता है। इस स्थान से व्यक्ति की शरीर यष्टि, वात-पित्त-कफ प्रकृति, त्वचा का रंग, यश-अपयश, पूर्वज, सुख-दुख, आत्मविश्वास, अहंकार, मानसिकता आदि को जाना जाता है।
द्वितीय भाव : इसे धन भाव भी कहते हैं। इससे व्यक्ति की आर्थिक स्थिति, परिवार का सुख, घर की स्थिति, दाईं आँख, वाणी, जीभ, खाना-पीना, प्रारंभिक शिक्षा, संपत्ति आदि के बारे में जाना जाता है।
तृतीय भाव : इसे पराक्रम का सहज भाव भी कहते हैं। इससे जातक के बल, छोटे भाई-बहन, नौकर-चाकर, पराक्रम, धैर्य, कंठ-फेफड़े, श्रवण स्थान, कंधे-हाथ आदि का विचार किया जाता है।
चतुर्थ स्थान : इसे मातृ स्थान भी कहते हैं। इससे मातृसुख, गृह सौख्य, वाहन सौख्य, बाग-बगीचा, जमीन-जायदाद, मित्र छाती पेट के रोग, मानसिक स्थिति आदि का विचार किया जाता है।
पंचम भाव : इसे सुत भाव भी कहते हैं। इससे संतति, बच्चों से मिलने वाला सुख, उच्च शिक्षा, विनय- अचानक धन-लाभ, प्रेम संबंधों में यश, नौकरी परिवर्तन आदि का विचार किया जाता है।
छठा भाव : इसे शत्रु या रोग स्थान भी कहते हैं। इससे जातक के शत्रु, रोग, भय, तनाव, कलह, मुकदमे, मामा-मौसी का सुख, नौकर-चाकर, जननांगों के रोग आदि का विचार किया जाता है।
सातवाँ भाव : विवाह सौख्य, शैय्या सुख, जीवनसाथी का स्वभाव, व्यापार, पार्टनरशिप, दूर के प्रवास योग, कोर्ट कचहरी प्रकरण में यश-अपयश आदि का ज्ञान इस भाव से होता है। इसे विवाह स्थान कहते हैं।
आठवाँ भाव : इस भाव को मृत्यु स्थान कहते हैं। इससे आयु निर्धारण, दु:ख, आर्थिक स्थिति, मानसिक क्लेश, जननांगों के विकार, अचानक आने वाले संकटों का पता चलता है।
नवाँ भाव : इसे भाग्य स्थान कहते हैं। यह भाव आध्यात्मिक प्रगति, भाग्योदय, बुद्धिमत्ता, गुरु, परदेश गमन, ग्रंथपुस्तक लेखन, तीर्थ यात्रा, भाई की पत्नी, दूसरा विवाह आदि के बारे में बताता है।
दसवाँ भाव : इसे कर्म स्थान कहते हैं। इससे पद-प्रतिष्ठा, बॉस, सामाजिक सम्मान, कार्य क्षमता, पितृ सुख, नौकरी व्यवसाय, शासन से लाभ, घुटनों का दर्द, सासू माँ आदि के बारे में पता चलता है।
ग्यारहवाँ भाव : इसे लाभ भाव कहते हैं। इससे मित्र, बहू-जँवाई, भेंट-उपहार, लाभ, आय के तरीके, पिंडली के बारे में जाना जाता है।
बारहवाँ भाव : इसे व्यय स्थान भी कहते हैं। इससे कर्ज, नुकसान, परदेश गमन, संन्यास, अनैतिक आचरण, व्यसन, गुप्त शत्रु, शैय्या सुख, आत्महत्या, जेल यात्रा, मुकदमेबाजी का विचार किया जाता है।
कुंडली में कालसर्प योग के बारें में भी ज्योतिष बेहद ध्यान देते हैं। कालसर्प तब होता है जब राहु-केतु के मध्य सातों ग्रह होइस दोष की वजह से संतान उत्पत्ति में बाधा, निराशा, अवसाद, असफलता आदि का सामना करना पड़ता है
ग्रहों की दशा ऊपरी शिखर पर ले जा सकती है और आपके लेन-देन कार्य में प्रबलता हो सकती है l व्यावसायिक कार्यों में कुछ अडचनें भी आ सकती हैं किन्तु धीरता से निर्णय लेने की आवश्कता होगी l आप अनचाहे बदलाव का भी अनुभव कर सकते है
वास्तुशास्त्र हमें नकारात्मक तत्वों से दूर सुरक्षित वातावरण में रखता है। वास्तुशास्त्र सदियों पुराना निर्माण का विज्ञान है, जिसमें वास्तुकला के सिद्धांत और दर्शन सम्मिलित हैं, जो किसी भी भवन निर्माण में बहुत अधिक महत्व रखते हैं। इनका प्रभाव मानव की जीवन शैली एवं रहन सहन पर पड़ता है।