Vastu



क्या है वास्तु शास्त्र?

वास्तु शास्त्र एक प्राचीन कला व विज्ञान है जिसके अंतर्गत किसी भी स्थान के उचित निर्माण से संबंधित वे सब नियम आते हैं ,जो मानव और प्रकृ्ति के बीच सामंजस्य बैठाते हैं, जिससे हमारे चारों ओर खुशियाँ, संपन्नता , सौहार्द व स्वस्थ वातावरण का निर्माण होता है। वास्तु शास्त्र की रचना पंचतत्व अर्थात धरती, आकाश , वायु , अग्नि, जल व आठ दिशाओं के अंतर्गत होती है.


हमारे जीवन में वास्तु का क्या महत्व है

यह माना जाता है कि वास्तुशास्त्र हमारे जीवन को बेहतर बनाने एवं कुछ गलत चीजों से हमारी रक्षा करने में मदद करता है। दूसरे शब्दों में कहें तो वास्तुशास्त्र हमें नकारात्मक तत्वों से दूर सुरक्षित वातावरण में रखता है। वास्तुशास्त्र सदियों पुराना निर्माण का विज्ञान है, जिसमें वास्तुकला के सिद्धांत और दर्शन सम्मिलित हैं, जो किसी भी भवन निर्माण में बहुत अधिक महत्व रखते हैं। इनका प्रभाव मानव की जीवन शैली एवं रहन सहन पर पड़ता है। वास्तुशास्त्र का मूल आधार विविध प्राकृतिक ऊर्जाओं पर निर्भर है। इसमें निम्न शामिल हो सकती हैं :-

  • पृथ्वी से ऊर्जा प्राप्ति
  • दिन के उजाले से ऊर्जा
  • सूर्य की ऊर्जा या सौर ऊर्जा
  • वायु से ऊर्जा
  • आकाश से ऊर्जा प्राप्ति
  • लौकिक / ब्रह्मांड से ऊर्जा
  • चंद्रमा की ऊर्जा

ऊर्जा स्रोत में चुंबकीय, थर्मल और विद्युत ऊर्जा भी शामिल होगी। जब हम इन सभी ऊर्जाओं का आनन्दमय उपयोग करते हैं, तो यह हमें अत्यंत आंतरिक खुशी, मन की शांति, स्वास्थ्य एवं समृद्धि के लिए धन प्रदान करती हैं। वास्तु को किसी भी प्रकार के कमरे, घर, वाणिज्यिक या आवासीय संपत्ति, बंगले, विला, मंदिर, नगर नियोजन आदि के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। वास्तु छोटी एवं बड़ी परियोजनाओं एवं उपक्रमों पर भी लागू होता है। पूर्ण सामंजस्य बनाने के लिए तीन बल महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं, जिनमें जल, अग्नि एवं वायु शामिल हैं। वास्तु के अनुसार, वहां पूर्ण सद्भाव और शांति होगी,जहां यह तीनों बल अपनी सही जगह पर स्थित होंगे। अगर इन तीन बलों की जगह में आपसी परिवर्तन यानी गड़बड़ी होती है, जैसे कि जल की जगह वायु या अग्नि को रखा जाए तथा अन्य ताकत का गलत स्थानांतरण हो तो इस गलत संयोजन का जीवन पर बुरा प्रभाव पड़ता है, जिसके कारण सद्भाव की कमी एवं अशांति पैदा होती है।


दिशाओं का महत्व वास्तु शाश्त्र में

वास्तु के अनुसार दिशाओं का भी भवन निर्माण मे उतना ही महत्व है, जितना कि पांच तत्वों का है। दिशाएं कौन-कौन सी हैं और उनके स्वामी कौन-कौन से हैं और वो किस तरह जीव को प्रभावित कर सकती हैं-ये समझना जरुरी है। वास्तु शास्त्र की अहमियत अब अंजानी नहीं रह गई है। अधिकांश लोग मान चुके हैं कि मकान की बनावट, उसमें रखी जाने वाली चीजें और उन्हें रखने का तरीका जीवन को प्रभावित करता है। ऐसे में, वास्तु शास्त्र की बारीकियों को समझना आवश्यक है। इन बारीकियों में सबसे अहम है-दिशाएं। वास्तु विज्ञान शास्त्रों के अनुसार चार दिशाओं के अतिरिक्त चार उपदिशाएं या विदिशाएं भी होती हैं। ये चार दिशाएं हैं- ईशान, आग्नेय, नैऋत्य, वायव्य। समरागण सूत्र में दिशाओं व विदिशाओं का उल्लेख इस प्रकार किया गया है।


पूर्व दिशा

वास्तुशास्त्र में यह दिशा बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है क्योंकि यह सूर्य के उदय होने की दिशा है. इस दिशा के स्वामी देवता इन्द्र हैं. भवन बनाते समय इस दिशा को सबसे अधिक खुला रखना चाहिए.यह सुख और समृद्धिकारक होता है.इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर / भवन में रहने वाले लोग बीमार रहते हैं.परेशानी और चिन्ता बनी रहती हैं.पूर्व दिशा का स्वामी इन्द्र हैं और इसे सूर्य का निवास स्थान भी माना जाता है। इस दिशा को पितृ स्थान माना जाता है अतः इस दिशा को खुला व स्वच्छ रखा जाना चाहिए। इस दिशा मे कोई रूकावट नहीं होनी चाहिए। यह दिशा वंश वृद्धि मे भी सहायक होती है ,सन्तान में बाधा खसके पुरुष सन्तान इसी कोण से देखते हैं । यह दिशा अगर दूषित होगी तो व्यक्ति के मान सम्मान को हानि मिलती है व पितृ दोष लगता है। प्रयास करें कि इस दिशा मे टॉयलेट न हो वरना धन व संतान की हानि का भय रहता है। पूर्व दिशा में बनी चारदीवारी पश्चिम दिशा की चार दीवारी से ऊंची नहीं होनी चाहिए। इससे भी संतान हानि का भय रहता है।

पश्चिम दिशा

वास्तुशास्त्र में यह दिशा बहुत ही महत्वपूर्ण माना गया है क्योंकि यह सूर्य के उदय होने की दिशा है. इस दिशा के स्वामी देवता इन्द्र हैं. भवन बनाते समय इस दिशा को सबसे अधिक खुला रखना चाहिए.यह सुख और समृद्धिकारक होता है.इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर / भवन में रहने वाले लोग बीमार रहते हैं.परेशानी और चिन्ता बनी रहती हैं.पूर्व दिशा का स्वामी इन्द्र हैं और इसे सूर्य का निवास स्थान भी माना जाता है। इस दिशा को पितृ स्थान माना जाता है अतः इस दिशा को खुला व स्वच्छ रखा जाना चाहिए। इस दिशा मे कोई रूकावट नहीं होनी चाहिए। यह दिशा वंश वृद्धि मे भी सहायक होती है ,सन्तान में बाधा खसके पुरुष सन्तान इसी कोण से देखते हैं । यह दिशा अगर दूषित होगी तो व्यक्ति के मान सम्मान को हानि मिलती है व पितृ दोष लगता है। प्रयास करें कि इस दिशा मे टॉयलेट न हो वरना धन व संतान की हानि का भय रहता है। पूर्व दिशा में बनी चारदीवारी पश्चिम दिशा की चार दीवारी से ऊंची नहीं होनी चाहिए। इससे भी संतान हानि का भय रहता है।

उत्तर दिशा

उत्तर दिशा का स्वामी कुबेर है और इस दिशा का तत्व जल तत्व होता है । भवन निर्माण करते समय इस दिशा को खुला छोड़ देना चाहिए। अगर इस दिशा में निर्माण करना जरूरी हो तो इस दिशा का निर्माण अन्य दिशाओं की अपेक्षा थोड़ा नीचा होना चाहिए। यह दिशा सुख सम्पति, धन धान्य एवं जीवन मे सभी सुखों को प्रदान करती है,इस स्थान से व्यापार वृद्धि ,करियर भी देखते हैं । उत्तर मुखी का स्वामी ग्रह बुध है।

दक्षिण दिशा

इस दिशा के स्वामी यम देव हैं.यह दिशा वास्तुशास्त्र में नाम और प्रशिद्धि का प्रतीक होता है.इस दिशा को खाली नहीं रखना चाहिए। दक्षिण दिशा में वास्तु दोष होने पर मान सम्मान में कमी स्वास्थ में परेशानी का सामना करना होता है.गृहस्वामी के निवास के लिए यह दिशा सर्वाधिक उपयुक्त होता है.आम तौर पर दक्षिण दिशा के भूखंड को अच्छा नहीं मानते क्योंकि दक्षिण दिशा को यम का स्थान माना जाता है और यम मृत्यु के देवता है अतः आम लोग इसे मृत्यु तुल्य दिशा मानते है। परन्तु यह दिशा बहुत ही सौभाग्यशाली है ,मेरी स्पस्ट मान्यता है कि भगवान की बनाई हुई कोई भी दिशा अशुभ नही हो सकती ,वास्तु शास्त्री को दिशाओं के गुणों के आधार पर अलग अलग जातक को अलग अलग दिशा का भूखंड बताना चाहिए । यह धैर्य व स्थिरता की प्रतीक है। यह दिशा हर प्रकार की बुराइयों को नष्ट करती है। भवन निर्माण करते समय पहले दक्षिण भाग को कवर करना चाहिए और इस दिशा को सर्वप्रथम पूरा बन्द रखना चाहिए। यहां पर भारी समान व भवन निर्माण साम्रगी को रखना चाहिए। यह दिशा अगर दूषित या खुली होगी तो जीवन में अपयश मिलता है



नैऋत्य दिशा

दक्षिण और पश्चिक के मध्य की दिशा को नैऋत्य दिशा कहते हैं.इस दिशा का वास्तुदोष दुर्घटना, रोग एवं मानसिक अशांति देता है.यह आचरण एवं व्यवहार को भी दूषित करता है.भवन निर्माण करते समय इस दिशा को भारी रखना चाहिए.इस दिशा का स्वामी नेरिती नाम का राक्षस है.यह दिशा वास्तु दोष से मुक्त होने पर भवन में रहने वाला व्यक्ति सेहतमंद रहता है एवं उसके मान सम्मान में भी वृद्धि होती है.दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र यानि नैऋत्य कोण पृथ्वी तत्व का प्रतीक है। यहाँ शस्त्रागार तथा गोपनीय वस्तुओं के संग्रह के लिए व्यवस्था करनी चाहिए। पृथ्वी तत्व होने की वजह से यह कोण स्थायित्व देता है इसीलिए इस कोण पर मुख्य शयन कक्ष बनाने का विधान है ,इसी कोण पर केश की अलमारी को रखते है जिससे लक्ष्मी स्थिर रहे ,इस कोण से वैवाहिक जीवन में सफलता या असफलता भी देखते है

ईशान दिशा

पूर्व दिशा व उत्तर दिशा के मध्य भाग को ईशान दिशा कहा जाता । ईशान दिशा को देवताओं का स्थान भी कहा जाता है। इसीलिए हिन्दू मान्यता के अनुसार कोई शुभ कार्य किया जाता है तो घट स्थापना ईशान दिशा की ओर की जाती है। सूर्योदय की पहली किरणें भवन के जिस भाग पर पड़े, उसे ईशान दिशा कहा जाता है। यह दिशा विवेक, धैर्य, ज्ञान,भक्ति वैराग्य , बुद्धि आदि प्रदान करती है। भवन मे इस दिशा को पूरी तरह शुद्ध व पवित्र रखा जाना चाहिए। यदि यह दिशा दूषित होगी तो भवन मे प्रायः कलह व विभिन्न कष्टों के साथ व्यक्ति की बुद्धि भ्रष्ट होती है। इस दिशा का स्वामी रूद्र यानि भगवान शिव है और प्रतिनिधि ग्रह बृहस्पति है।उत्तरी-पूर्वी क्षेत्र अर्थात्‌ ईशान कोण जल का प्रतीक है। भवन का यह भाग ब्राह्मणों, बालकों तथा अतिथियों के लिए शुभ होता है। अत: इस दिशा में पूजा स्थल या पदाई का कक्ष बनवाना शुभ होता है।

आग्नेश दिशा

अग्नि तत्व की प्रतीक है। इसका अधिपति अग्नि देव को माना गया है। यह दिशा रसोईघर, व्यायामशाला या ईंधन के संग्रह करने के स्थान के लिए अत्यंत शुभ होती है। पूर्व और दक्षिण के मध्य की दिशा को आग्नेश दिशा कहते हैं.अग्निदेव इस दिशा के स्वामी हैं.इस दिशा में वास्तुदोष होने पर घर का वातावरण अशांत और तनावपूर्ण रहता है.धन की हानि होती है.मानसिक परेशानी और चिन्ता बनी रहती है.यह दिशा शुभ होने पर भवन में रहने वाले उर्जावान और स्वस्थ रहते हैं.इस दिशा में रसोईघर का निर्माण वास्तु की दृष्टि से श्रेष्ठ होता है.अग्नि से सम्बन्धित सभी कार्य के लिए यह दिशा शुभ होता है इससे निवास करने वाले लोग उर्जावान और स्वस्थ रहते हैं.इस दिशा में रसोईघर का निर्माण वास्तु की दृष्टि से श्रेष्ठ होता है.अग्नि से सम्बन्धित सभी कार्य के लिए यह दिशा शुभ होता है.पूर्व दिशा व दक्षिण दिशा को मिलाने वाले कोण को अग्नेय कोण संज्ञा दी जाती है। जैसा कि नाम से ही प्रतीत होता है इस कोण को अग्नि तत्व का प्रभुत्व माना गया है और इसका सीधा सम्बन्ध स्वास्थ्य के साथ है। यह दिशा दूषित रहेगी तो घर का कोई न कोई सदस्य बीमार रहेगा। इस दिशा के दोषपूर्ण रहने से व्यक्ति क्रोधित स्वभाव वाला व चिड़चिड़ा होगा। यदि भवन का यह कोण बढ़ा हुआ है तो संतान को कष्टप्रद होकर राजभय आदि देता है। इस दिशा के प्रतिनिधि ग्रह शुक्र है।
कैसे हो कम्पास के द्वारा दिशाओं का ज्ञान -

  • वास्तु जानने के लिए दिशाओं का सही निर्धारण जरूरी है।
  • दिशा जानने के लिए कम्पास का प्रयोग करते हैं।
  • जिसमें एक चुम्बकीय सुई होती है जिसका तीर उत्तर दिशा में ही रूकता है।
  • कम्पास को भवन के मध्य में रखने पर सुई जिस दिशा में रूकती है वह उत्तर होता है।
  • उत्तर से 180 डिग्री पर दक्षिण, दाईं ओर 90 डिग्री पर पूर्व व बाईं ओर 90 डिग्री पर पश्चिम होता है।
  • कम्पास से देखने पर यदि दिशा मध्य में न होकर 22.5 डिग्री तक हटी हो तो
  • दिशा प्लॉट व इससे अधिक हटने पर विदिशा प्लॉट माना जाता है